एसके सहाय वाह रे भारतीय संसद , प्रक्रिया, संविधान और इसकी सर्वोच्चता के बीच प्रक्रियागत प्रविधियों के सहारे लोकपाल के मुड़े को फ़िलहाल टालने में कामयाब हो ही गई | माननीय सांसदों को इसका भी भान नहीं रहा कि वे राइ को पहाड़ और पहाड़ को राइ बनाने की सामर्थ्य रखते हैं जैसा कि 1973 में दिए एक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने दिया था | इसमें साफ निर्णय थे कि संसद सविधान सहित अन्य मामले में प्रयाप्त बहुमत के बूते कोई भी निर्णय ले सकती है सिर्फ संविधान के मूल भावना को बदल नहीं सकती | यह मूल भावना क्या है ?इसकी व्याख्या उस संविधान पीठ में शामिल न्यायधीशों ने अलग -अलग किए थे लेकिन इनके फैसले का मूल तत्व था - लोकतान्त्रिक व्यवस्था में परिवर्तन संसद हरगिज नहीं कर सकती |
इस अपनी ताकत को पहचानते हुए भी संसद ने जाहिर कर दिया है कि उसे अपने हितों से ज्यादा प्यारा कुछ भी नहीं है | यदि ऐसा नहीं होता , तब सभी नियमों -परिनियमों को धत्ता बताते हुए संसद लोकपाल विधेयक के प्रावधानों पर तत्क्षण विचार करते ,जिसके लिए पूरा देश बैचेन है | इसके लिए सरकार के प्रस्तुत विधेयक पर ही विमर्श होता और फिर सर्वसम्मति से इसके सभी धाराओं पर बहस करते हुए वस्तुपरक तरीके से मतदान के जरीये आगे बढती ,जिसमे पक्ष -विपक्ष के चेहरे सामने आते ,जिससे मालूम होता कि आखिर अधिसंख्य सांसदों का रूख कैसा है ?
वैसे ,तीन मुद्दे पर संसद ने सर्वानुमति से अपनी मुहर लगा दी है ,जो अभी सैधान्तिक रूप में है ,जिससे कुछ आस जगी है लेकिन मात्र इतने भर से काम नहीं बनने वाले है |अभी लंबी लड़ाई के लिए एक बार फिर देशवासियों को तैयार रहना होगा | लोकपाल के प्रस्तावित बातें संसद के स्थायी समिति को भेजे गए हैं |यह समिति कब अपना गुण -दोष के साथ प्रावैधानिक सलाहों के साथ अपना राय पत्र देती है ,इसे देखना बाकी है |
अभी की स्थिति में संतोष जनक बात यही है कि क्म से कम अन्ना हजारे के आत्म बल, सचारित्र्ता , नैतिकता ,सद भाव और त्याग के बीच एक बार फिर देश में लोक शक्ति अपने मौलिक मांगों के प्रति सचेत हुई है ,जिसका स्वागत किया जाना चाहिए | यह आन्दोलन इसलिए कामयाबी के शिखर तक पहुचने के स्थिति तक है कि हजारे जैसे एक पवित्र आत्मा कि यह पुकार है ,जिसका अभाव आज भारतीय राजनीति में बहुत ही कम देखने को मिलते हैं | एक गैर राजनितिक पुरूष ने यह स्थापित कर दिया कि यदि आपका खुद का आचरण पाक -साफ हो और सोच की दिशा परोपकारिता से लबरेज हो तो ,दुनिया की कोई भी शक्ति आपको लक्ष्य प्राप्त करने से नहीं रोक सकती ,अभी के हालात में तो यही दिखा है |
इस देश व्यापी जन आन्दोलन में यह भी सामने आया कि विचारवान लोग भी बहस के दौरान मूल विषय -मुद्दे से भटकते नज़र आये , इनके लिए लोकपाल केवल बहस के लिए बहस करना ही शगल बना रहा ,जिसमे तथ्य की समझ कम और अपने व्यक्तिगत सोच की बातें ज्यादा उल्लेखित रहीं | मसलन, किसी ने कहा कि निजी क्षेत्र ,गैर सरकारी संगठनों को भी इसके दायरे में लाया जाना चाहिए |शायद इस तरह के चिंतन करने वालों को यह भी पत्ता नहीं कि ,जब सरकारी कर्मी ,जिसमे संसद -विधान मंडल आ जायेंगे ,तब खुद बी खुद निजी संस्थाए इसके परिधि में आ जायेंगे |इनके लिए अलग से कानून बनाये जाने की क्या जरूरत है | आखिर सार्वजनिक धन के लुट का ही मामला है न ,फिर इसमें जो व्यापारी ,उद्योगपति ,कारोबारी या अन्य लोग आयेनेग ,ठीक उसी तरह ही कारवाई के शिकार होंगे ,जैसे अधिकारी -कर्मचारी वर्ग के लोग, फिर अलग से शब्दों के डाल देने से ही समस्या का अंत तो होगा नहीं |
और अब जब लोकपाल पर सर्वानुमति है ,तो देखना है कि बनने वाली विधेयक में इसके अन्तर्निहित शक्तियों का स्वरूप कैसा होगा |मूल बात यही है |क्या यह नियंत्रण महालेखा परीक्षक -चुनाव आयोग जैसे संविधान से निसृत संस्था होगी ,जिसकी जाँच की प्रक्रिया अपनी और स्वतन्त्र होगी तथा समयबद्ध सुनवाई की बाध्यता होगी और इसके जाँच के दायरे में प्रधान मंत्री सहित उच्च -उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश आते हैं या नहीं ,इन्ही सब बिन्दुओं पर स्थायी समिति और संसद के रूख का परीक्षण होना है भारतीय लोगों के सामने ,जिसका बेसब्री से इंतजार ह
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