Sunday, 1 May 2022

अर्थव्यवस्था:बदलते स्वरूप

    भारतीय अर्थव्यवस्था के कदम पूंजीवाद की ओर 

              -एसके सहाय-

                 आजादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को जनोन्मुखी होने और उसे आम और राष्ट्रीय हितों को गति देने के लिए नेहरू काल में ठोस पहल हुई, इसमें मिश्रित अर्थव्यवस्था की परिकल्पना को साकार करने के लिए ठोस प्रबंधन किए गये, जिससे वैयक्तिक और सार्वजनिक पूंजी के बीच सामंजस्य स्थापित हो, ताकि उसके लाभ हर नागरिक एवं सरकारों को मिल सके ।

        बहरहाल, इधर 2014 से देखा गया है कि, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों-उपक्रमों को बेचने की गति में काफी तेजी आई है और इसके लिए तर्क यह ढूंढा गया है कि, सरकारी कल-कारखाने घाटे के औजार बन गये हैं, सो इसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए निजी हाथों में सौंपना जरूरी है ।

        सवाल है कि, बगैर ठोस विचार-विमर्श के सरकारी कंपनियों को औने-पौने दामों में बेचना कहां तक उचित है ? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि, सरकार अपनी जिम्मेदारियों से या समझिये अयोग्यता से बचना चाहती है और सिर्फ नफे-नुकसान के नजरिये से किसी " प्रकिया " को देखती है और  यही ' लोकतांत्रिक अवधारणा " को क्षति पहुंचाने वाली कदम है ।

        यह बात इसलिए भी विचारणीय है कि, कोई भी " जनतंत्र " की व्यवस्था में " उसके कल्याणकारी संकल्पना " स्वत, स्वाभाविक और प्राकृतिक रुप से निहित होती है ।ऐसे में एकतरफा व्यापार-व्यवसाय को निजी क्षेत्र में सुपुर्द करना आम हितों के विरुद्ध है ।

         ऐसे में नेहरूकालीन अर्थ व्यवस्था को समझने की जरूरत है, आवश्यकता इसलिए भी है कि, मिश्रित अर्थव्यवस्था की शुरुआत के नेपथ्य में आखिर उस वक्त के सरकार की मंशा विकास के संदर्भ में क्या थी?

           अतएव , एक संक्षिप्त नजर उस दौर के विश्वव्यापी अर्थ व्यवस्था की ओर दौङाना अपरिहार्य है । यह सर्वविदित है कि, दितीय विश्वयुद्ध के पश्चात दुनिया दो खेमों में विभक्त थी, जिसमें एक का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका तो, दूसरे का नेतृत्व तत्कालीन सोवियत संघ कर रहा था ।इनके अर्थ व्यवस्था के स्वरूप भी एक-दूसरे के विपरीत थे ।अमेरिका जहां प्रतिस्पर्धा, खुला अर्थकीय व्यवस्था का पक्षधर था और आज भी है, तो सोवियत संघ सरकारी नियंत्रण में विकास के पैमाने गढ़ रहा था ।

          इस परस्पर विरोधी दो अर्थजगत के व्यवस्थाओं को काफी करीब से नेहरू जी ने अध्ययन किए और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि, दोनों अर्थकीय दुनिया एकांगी है और यह भारत जैसे विविधता पुर्ण देश के लिए उचित एवं हितकर नहीं हो सकती, इसलिए " समन्वय तथा तालमेल " के साथ ही भारत की आर्थिकी संरचना को बृहत स्वरुप दिया जाए, ताकि एक के पंगु होने से दूसरे की मदद से आम लोगों के दैनंदिन जीवन को संरक्षित किया जा सके ।

            सो, इसके लिए, सरकार ने भारी भरकम क्षेत्रों में खुद पूंजी के निवेश को प्राथमिकता दिए जाने की नीति क्रियान्वित करने शुरू किए, जिससे देश में एक व्यापक एवं संगठित रोजगार के सृजन आरंभ हुआ और इसके क्या फायदे हुए, वह दृष्टिगत है, इसे यहां बताने की जरूरत नहीं है ।

     आशय यह कि, नेहरूकालीन अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा के साथ उसकी उपयोगिता के सिद्धांत समाविष्ट थे, कुछ व्यवसाय सरकार कर रही थी तो, कुछ व्यवसाय पूंजीपतियों के हाथों संचालित थी, इसी अवधारणा के तहत विकास के पैमाने स्वातंत्र्योत्तर भारत में अर्थ व्यवस्था को गति प्रदान की गई ।

      बदलते समय में वर्ष 1991 में  सोवियत संघ का विघटन हो गया और इस टूटते रुस को अमेरिका ने अपने कथित अर्थ व्यवस्था को विजयी के लिए उद्घोषित किया, अर्थात उदारवाद, खुलावाद और भूमंडलीकरण जैसे शब्दावली को गढ़ कर पूरे दुनिया में दुदंभि बजाने में सफल रहा कि, " बगेर वैयक्तिक पूंजी के विकास ,प्रगति एवं लोकहित संभव नहीं है, इसे तभी जनहित कारी बनाया जा सकता है, जब पूंजीवादी तरीके से अर्थ व्यवस्था को संचरण के लिए अनुकूल खाद्ध-पानी मिले ।"

        इस बहुप्रचारित झांसे में पी वी नरसिंह राव की सरकार आ गयी और उसने फूंक-फूंक कर कदम बढाने की दिशा में शुरू की, परवर्ती काल में जब बाजपेयी की सरकार केन्द्र में आई, तब बकायदा ' अलग से विनिवेश मंत्रालय " ही गठित हो गये और सार्वजनिक/सरकारी कंपनियों को विक्री के लिए बाजाप्ता कार्यक्रम बनने लगे ।

       मनमोहन युग में ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सार्वजिनक क्षेत्र के कंपनियों की उपयोगिता एवं उसके जन अपेक्षा पर कसौटियों को तौला जाने लगा,इस दौर में सरकारी प्रतिष्ठान निजी हाथ में गये, लेकिन उसके  सांगोपांग उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही, उसे क्रियान्वित किया गया ।

         और अब मोदी काल में हालत यह है कि, लाभप्रद कंपनी को भी चयनित तरीके से अपने पसंदीदा निजी हाथों को दिए जाने  की नीति के तहत सत्ता खुद गतिशील है ।

     कुल मिलाकर आशय यह कि, क्या सरकार व्यावसायिक तरीके से एक लोकतंत्र में नागरिकों के साथ व्यवहार कर सकती है? और यदि जन  जरूरतों के " अकाल " पैदा हो गई, तब सरकार उसके लिए धनकुबेरों पर आश्रित नहीं हो जाएगी अर्थात मोलभाव! कोविद-19 के संक्रमण वर्तमान में एक अच्छा उदाहरण है ।

     सिर्फ़ टैक्स वसूली ही, क्या सरकार के मुख्य व्यवसाय हैं? मरते लोगों को बचाने की जवाबदेही से कैसे कोई लोकतांत्रिक सरकार पल्ला झाङ सकती है?

       दरअसल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह समझने को तैयार ही नहीं हैं कि, लोकतंत्र में शासन के होने के मतलब उत्तरदायित्व को वहन करना है, न कि, सत्ता का संचालन व्यापारिक दृष्टिकोण से, यदि ऐसा ही व्यवहार में रहा तो आने वाले कल में हम जनक्रांति को निमंत्रण देते दिखेंगे ⁉️

            

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