Thursday, 21 April 2022

हेमंत सोरेन और उनकी विधायिकी

            - हेमन्त सरकार को फांसने की कोशिश-

                इन दिनों झारखंड में मुख्य मंत्री हेमन्त सोरेन की सरकार को लेकर विरोधी पक्ष विशेष सक्रिय है और इसके लिए भाजपा ने संविधान द्वारा प्रदत्त आम विनियमों के तहत सीधे सरकार के नेतृत्व कर रहे हेमन्त की विधायिकी पर ही प्रश्न खङा कर दिया है , जिसे लेकर राज्य के राजनीतिक गलियारों में खास चर्चा है ।

                इस हवा को बल मिला है, भाजपा द्वारा राज्यपाल रमेश बैस को सौंपा गया, वह ज्ञापन, जिसमें बताया गया है कि, हेमंत सोरेन ने विधानसभा चुनाव में अपने बारे में सही जानकारी निर्वाचन आयोग अर्थात निर्वाची पदाधिकारी को नहीं दिए हैं, मतलब यह कि, वह 'दोहरे लाभ ' के पद पर हैं, इसलिए उनकी विधायिकी समाप्त किया जाना चाहिए ।

        काफी कुछ, इन्हीं तर्कों को लेकर विपक्ष ने झारखंड उच्च न्यायालय में उनकी विधानसभा की सदस्यता को लेकर चुनौती दी गई है ।इसके अलावा, केन्द्रीय चुनाव आयोग से हेमन्त सोरेन की विधायिकी को रद्द करने की मांग की है ।

           यह तकनीकी मुद्दा तब भाजपा को समझ में आया, जब उसने राजनीतिक स्तर पर झामुमो-गठबंधन सरकार को तोड़ पाने में अपने को कमजोर पाया, क्योंकि राज्य में जिस परिस्थिति में मौजूदा सरकार अस्तित्व में आई, उसमें इन दोनों को साथ आने स्वाभाविक स्थितियां थी, क्योंकि 2019 में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस तालमेल के साथ संयुक्त रूप से चुनाव लङे थे ।

      इसलिए निकट भविष्य में सरकार को अस्थिर करने के अवसर विपक्ष को नहीं मिल रहा था ।ऐसे में उसने सीधे हेमन्त सोरेन की विधायिकी पर ही सवाल खङा करने की चाल चली है, जिसमें उसने दावा किया कि , हेमंत सोरेन ने अपने शपथ पत्र में अपने धंधे के बाबत कोई जिक्र नहीं किया है, जबकि वह खनन जैसे कार्यों में संलिप्त रहे हैं, इतना ही नहीं, वह अपने विधायक भाई वसंत सोरेन के साथ खनन कंपनी के साझेदार हैं और खुद की सरकार में कानून को ठेंगा दिखाते हुए अपनी कंपनी के अनुज्ञप्ति को सारे प्रक्रिया को धत्ता बताते उसे नवीकरण किया गया है ।

          बहरहाल, सवाल यह है कि, क्या सचमुच मुख्यमंत्री दोहरे लाभ के पद पर हैं?

           इस सवाल के मूल में क्या है? इसे समझने के लिए कानूनी प्रावधान/प्रक्रिया से इतर बातों को जानना जरुरी है ।प्रायः हर नागरिक अपने जीविकोपार्जन के लिए कोई न कोई धंधा करता है, यह जिन्दगी के अहम एवं स्वाभाविक प्रक्रिया है, फिर ऐसे में हेमन्त सोरेन अछूते कैसे रह सकते हैं!

       यदि दोहरी भूमिका की इतनी ही चिन्ता कानून पालन करने वाले तत्वों को है तो, उसके दायरे में केन्द्र सहित राज्यों के प्रायः हर विधायक- सांसद आएंगे, जो किसी न किसी रूप में आजीविका के तहत रोटी-रोजी के नाम पर विभिन्न तरीकों से कामों में संलिप्त हैं, तब यह केवल हेमन्त का अकेला मुद्दा नहीं रह जाता है ।

       दरअसल, भाजपा विधानसभा में आंकड़ों के हिसाब से झामुमोनीत  सरकार को ठोस चुनौती दे पाने में अपने को सक्षम नहीं पा रही है और इसलिए उसे कानून की तकनीकी आधारों पर घेरने के प्रयास में है । वर्तमान में जो राजनीतिक परिदृश्य देश में और झारखंड में है, उसमें कांग्रेस और झामुमो एक-दूसरे के पूरक हैं, कांग्रेस को सत्ता चाहिए और झामुमो को खुद का नेतृत्व, जो हेमन्त सोरेन स्थिरता से देते आ रहे हैं ।

            दोहरी सदस्यता का सवाल राजनीतिक मकसद से उत्पन्न है और इसकी क्या परिणति होगी, यह भी साफ़ नहीं है, क्योंकि आज हरेक वैधिक उपक्रमों की विश्वसनीयता संदिग्ध है, हर बात-विवाद के मूल में सियासत है, आरोप-प्रत्यारोप की पृष्ठभूमि में निर्वाचन आयोग, अदालत  सहित जांच एजेंसियों को लपेटे में लिया जाना सियासत के मैदान में आम बात है, तब किस पर तटस्थता एवं निरपेक्षता के लिए भरोसा किया जाए? इसी परिप्रेक्ष्य में अभी राज्य के सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में आम मानसिकता है ।

      गौर करें कि, उच्च न्यायालय दोहरी सदस्यता की जांच केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को देती है और यह एजेंसी केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अन्तर्गत है और इसके नेतृत्व दलगत राजनीति के तहत चुने गए अर्थात सत्ता में आई भाजपा के हाथों में है, तब शक-शुबहा तो पैदा होगी ही, इसी तरह निर्वाचन आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त समेत अन्य चुनाव आयुक्तों की मनोदशा के अध्ययन करें तो काफी चौंकाने वाली बात सामने आएगी ।हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम को लेकर कैसे-कैसे संशय पैदा किए गये, उसे यहां बताने की जरूरत नहीं है ।

       कुल मिलाकर देखना है कि, राज्यपाल रमेश बैस की भूमिका विपक्ष द्वारा उठाए गए दोहरे सदस्यता पर कैसी होती है ।क्या वह केन्द्र सरकार के एजेंट की भूमिका में रहेंगे? जैसा कि, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के अध्येताओं का एक बङा समूह आजादी के बाद से ही राज्यपाल को चित्रित करते रहा है या स्वयं के स्वविवेक का भी इस्तेमाल करेंगे, फिलहाल के झारखंड में यही यक्ष सवाल सत्ता पक्ष के गलियारे में गुंज रहा है ।

         

        

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