Monday, 12 September 2022

ज्ञानवापी /अदालत

 ज्ञानवापीप शृंगार गौरी वाद बरकरार रखने पर सवाल उठाने वाली याचिका खारिज, सुनवाई जारी रहेगी●

            वाराणसी की जिला अदालत ने सोमवार को ज्ञानवापी शृंगार गौरी मामले की पोषणीयता पर सवाल उठाने वाली मुस्लिम पक्ष की याचिका खारिज कर दी और कहा कि वह पूजा के अधिकार की मांग वाली याचिका पर सुनवाई जारी रखेगी।


मुस्लिम पक्ष ने अदालत के इस फैसले को उच्‍च न्‍यायालय में चुनौती देने की घोषणा की है।


हिन्दू पक्ष के वकील विष्णु जैन ने बताया कि जिला न्यायाधीश ए.के. विश्वेश ने मामले की पोषणीयता पर सवाल उठाने वाली याचिका को खारिज करते हुए सुनवाई जारी रखने का निर्णय किया।


अदालत में मौजूद एक वकील ने बताया कि जिला न्यायाधीश ने दोनों पक्षों के वादियों और उनके अधिवक्‍ताओं समेत 32 लोगों की मौजूदगी में 26 पन्‍नों का आदेश 10 मिनट के अंदर पढ़कर सुनाया।


अदालत ने गत 24 अगस्‍त को इस मामले में अपना आदेश 12 सितंबर तक के लिए सुरक्षित रख लिया था।


मुस्लिम पक्ष के वकील मेराजुद्दीन सिद्दीकी ने कहा कि जिला अदालत के इस निर्णय को उच्‍च न्‍यायालय में चुनौती दी जाएगी।


उल्लेखनीय है कि इस मामले में पांच महिलाओं ने याचिका दायर कर हिंदू देवी-देवताओं की दैनिक पूजा की अनुमति मांगी थी, जिनके विग्रह ज्ञानवापी मस्जिद की बाहरी दीवार पर स्थित हैं।


अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद समिति ने ज्ञानवापी मस्जिद को वक्फ संपत्ति बताते हुए कहा था कि मामला सुनवाई योग्य नहीं है। मामले में अगली सुनवाई 22 सितंबर को होगी।


जिला जज ने अपने आदेश में कहा, 'दलीलों और विश्‍लेषण के मद्देनजर मैं इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा हूं कि यह मामला उपासना स्‍थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991, वक्‍फ अधिनियम 1995 और उप्र श्री काशी विश्‍वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 तथा बचाव पक्ष संख्‍या 4 (अंजुमन इंतजामिया) द्वारा दाखिल याचिका 35 सी के तहत वर्जित नहीं गया है, लिहाजा इसे निरस्‍त किया जाता है।' अदालत के यह फैसला सुनाने के बाद कुछ लोग सड़कों पर आ गये और मिठाइयां बांटकर खुशियां मनायीं।


गौरतलब है कि उच्‍चतम न्‍यायालय ने गत 20 मई को ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर हिंदू श्रद्धालुओं की याचिका को मामले की जटिलता के मद्देनजर वाराणसी के सिविल न्यायाधीश (सीनियर डिवीजन) की अदालत से जिला न्यायाधीश, वाराणसी की अदालत में हस्तांतरित कर दिया था।


शीर्ष अदालत ने कहा था कि अच्छा होगा यदि इस मामले की सुनवाई 25-30 वर्ष का अनुभव रखने वाले किसी वरिष्‍ठ न्यायाधीश से कराई जाये। कराने के आदेश दिये थे।


न्‍यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्‍यायमूर्ति सूर्य कांत और न्‍यायमूर्ति पी एस नरसिम्‍हा की पीठ ने कहा था कि वह सिविल जज की योग्‍यता को कमतर नहीं आंक रही है, मगर इस मामले की पेचीदगी को देखते हुए यह बेहतर है कि कोई वरिष्‍ठ न्‍यायिक अधिकारी इस मामले की सुनवाई करे।


इसके बाद इस मामले को जिला न्‍यायाधीश ए के विश्‍वेश की अदालत में स्‍थानांतरित कर दिया गया था।


अदालत के निर्णय सुनाये जाने की संवेदनशीलता के मद्देनजर वाराणसी जिला प्रशासन ने धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू कर दी थी और सुरक्षा के कड़े बंदोबस्‍त किये थे।

Sunday, 11 September 2022

केरल:सिकुड़ती जा रही है वेम्बनाड झील■

        पश्चिम बंगाल में सुंदरबन के बाद भारत में दूसरी सबसे बड़ी आर्द्रभूमि (वेटलैंड) वेम्बनाड झील धीरे-धीरे सिकुड़ती जा रही है। लगभग 20 साल पहले इसे ‘रामसर’ स्थल के रूप में घोषित किया गया था और अब इसकी अनूठी जैव विविधता खतरे में है।


कुट्टनाड के किसानों और मछुआरों के समुदाय के लिए यह झील आजीविका का एक स्रोत है। इसके किनारों पर अनधिकृत निर्माण और प्रदूषण के कारण पारिस्थितिक तंत्र में बदलाव जारी हैं। विशेषज्ञों ने आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए ‘‘प्रतिबद्ध प्रयास’’ करने का आह्वान किया है।


इस झील का क्षेत्र धीरे-धीरे सिकुड़ रहा है और यह लगभग दो हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली है तथा इसकी लंबाई लगभग 96 किलोमीटर है। यह झील केरल की सबसे बड़ी और देश की सबसे लंबी झीलों में से एक है। यह अलप्पुझा, कोट्टायम और एर्नाकुलम तीन जिलों से घिरी है।


पारिस्थितिकी विशेषज्ञों और वर्षों से किए गए विभिन्न अध्ययनों के अनुसार बार-बार आने वाली बाढ़, बढ़ते प्रदूषण, जल प्रसार क्षेत्र में कमी और खरपतवार वृद्धि के कारण झील गंभीर पर्यावरणीय क्षरण का सामना कर रही है।


आर्द्रभूमि पर राष्ट्रीय समिति के सदस्य और जल संसाधन विकास और प्रबंधन केंद्र (सीडब्ल्यूआरडीएम) के एक पूर्व निदेशक ई. जे. जेम्स का मानना है कि राज्य सरकार जो कदम उठाने का दावा करती है, वे केवल कागजों तक ही सीमित रहते हैं और जमीनी स्तर पर इन्हें लागू नहीं किया जाता है।


हाल में जब सदन में इस मुद्दे को उठाया गया था, तब मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा था कि राजस्व, सर्वेक्षण और स्थानीय स्वशासन विभाग अतिक्रमणों का पता लगाने और उन्हें हटाने और झील की सीमाओं का सीमांकन करने के लिए कार्रवाई कर रहे हैं।


विजयन ने कहा था कि झील के पुनरुद्धार में मछुआरों और किसानों सहित स्थानीय समुदायों की भागीदारी आवश्यक है।


जेम्स उस विशेषज्ञ समिति का हिस्सा थे, जिसने वेम्बनाड को ‘रामसर’ स्थल घोषित करने पर जोर दिया था।


उन्होंने कहा कि झील के समक्ष आने वाले पारिस्थितिक क्षय के खतरे का समाधान उतना आसान नहीं है, जितना कि थन्नीरमुकोम बांध में गाद जमा होने से रोकने के लिए अतिक्रमण हटाना या बाहरी बांध बनाना था।


उन्होंने दावा किया, ‘‘इसे रामसर स्थल घोषित किए जाने के बाद, आर्द्रभूमि प्रणाली की रक्षा या वहां पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए शायद ही कुछ किया गया है।’’


अलप्पुझा से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) सांसद ए. एम. आरिफ ने कहा कि झील को रामसर स्थल घोषित करने के बाद इसकी सुरक्षा या संरक्षण के लिए कुछ नहीं किया गया। उन्होंने कहा, ‘‘सब कुछ राज्य सरकार पर छोड़ दिया गया है। राज्य सरकार कदम उठा रही है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। झील के संरक्षण के संबंध में कई परियोजनाओं की घोषणा की गई थी, लेकिन उन्हें अभी तक लागू नहीं किया गया है।’’


जेम्स ने कहा झील का प्रबंधन इस तरह से किया जाना चाहिए कि कृषि और मत्स्य पालन दोनों क्षेत्र एक दूसरे के पूरक हो सकें।

17 सितंबर: तेलंगाना का ‘रशोमोन’ आंदोलन,


           जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा की प्रसिद्ध फिल्म ‘रशोमोन’ की तरह हैदराबाद रियासत के वर्ष 1948 में भारतीय संघ में शामिल होने के दिन 17 सितंबर की तेलंगाना में अलग-अलग पार्टियों द्वारा अलग-अलग व्याख्या की गई है।


भाजपा के लिए यह ‘तेलंगाना मुक्ति दिवस’ है, जबकि तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) सरकार ने इस साल इस दिन को ‘तेलंगाना राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया है।


भाकपा 17 सितंबर को वामपंथियों के नेतृत्व में ‘तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष’ की सफल परिणति के रूप में मनाती है। भाकपा का कहना है कि इसने निजाम को हैदराबाद राज्य को भारतीय संघ में विलय करने के लिए मजबूर किया।


केंद्र ने हाल ही में हैदराबाद रियासत के मुक्त होने के 75 साल पूरे होने के अवसर पर सालभर चलने वाले समारोहों का आयोजन करने का निर्णय लिया है।


केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह 17 सितंबर को हैदराबाद में उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होंगे।


निजाम शासन के अधीन रहे हैदराबाद राज्य का 17 सितंबर, 1948 को पुलिस कार्रवाई के बाद भारत संघ में विलय हो गया था। इस कार्रवाई का कोड नाम था ‘ऑपरेशन पोलो’।


तत्कालीन हैदराबाद राज्य में तेलंगाना के अलावा वर्तमान महाराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ हिस्से शामिल थे।


भाजपा कई वर्षों से मांग कर रही है कि राज्य सरकार इस दिन को आधिकारिक रूप से मनाए।


भगवा पार्टी ने बताया कि महाराष्ट्र और कर्नाटक की सरकारें उन जिलों में इस दिन को मनाती हैं, जो निजाम राज्य का हिस्सा थे।


भाजपा प्रवक्ता कृष्णा सागर राव ने ’पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘जब भारत को आजादी मिली, तो ऐसा क्यों है कि हैदराबाद के निजाम भारतीय संघ में शामिल नहीं हुए, जबकि अन्य सभी रियासतों ने विलय को स्वीकार किया।’’


उन्होंने कहा कि यह निश्चित रूप से एक 'मुक्ति' है, क्योंकि हैदराबाद रियासत में सेना को उतरना पड़ा था।


मुनुगोड़े में पिछले महीने एक जनसभा को संबोधित करते हुए शाह ने आरोप लगाया था कि टीआरएस सरकार 17 सितंबर को मुक्ति दिवस के रूप में नहीं मना रही है जैसा कि असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाले एआईएमआईएम के ‘डर’ के कारण वादा किया गया था।


ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने तीन सितंबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर कहा था कि इस दिवस के लिए मुक्ति की बजाय ‘राष्ट्र एकता दिवस’ वाक्यांश का इस्तेमाल किया जाए।


भाकपा के राज्य सचिव कुनामनेनी संबाशिव राव ने आरोप लगाया कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस घटना को ‘एक मुस्लिम शासक से मुक्ति’ के रूप में वर्णित करके सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि 17 सितंबर को ‘विलय दिवस’ के रूप में याद किया जाना चाहिए।

Friday, 12 August 2022

Heritage Parliament building

 Heritage Parliament building a witness to India's story-

            From the first steps towards self-rule to the dawn of Independence and then to the country's emergence as a nuclear power and beyond, the grand old Parliament building has been a witness to the India story as it unfolded before it since 1927.


The hallowed precincts of Parliament have witnessed lively debates on the making of Constitution, poignant scenes after the announcement of the death of Mahatma Gandhi and thumping of desks when the then prime minister Indira Gandhi announced the unconditional surrender of West Pakistan forces in Bangladesh.


The heartfelt speeches of first prime minister Jawaharlal Nehru, the calm but firm resolve of Lal Bahadur Shastri, the eloquence of Indira Gandhi, the poetic brilliance of Atal Bihari Vajpayee and the powerful oratory of Narendra Modi have reverberated in the chambers of Parliament.


The foundation stone of the colonnaded building was laid by Prince Arthur, the Duke of Connaught in 1921 and the building was inaugurated on January 18, 1927.


The recently-concluded monsoon session of Parliament, could perhaps be the last in the old building as a new triangular building gets ready at a frenetic pace for a possible November inauguration.


"Today you meet for the first time in your new and permanent home in Delhi," Lord Irwin, the Viceroy, said addressing the first session of the third legislative assembly on January 24, 1927.


"In this chamber, the assembly has been provided with a setting worthy of its dignity and importance, and I can pay its designer no higher compliment than by expressing the wish with that the temper, in which the public affairs of India will be here conducted, may reflect the harmony of his conception," he said.


Pandit Madan Mohan Malviya, Muhammad Ali Jinnah, Pandit Motilal Nehru, Lala Lajpat Rai, C S Ranga Iyer, Madheo Srihari Aney, Vithalbhai Patel among others were the members of the third legislative assembly.


Through the Government of India Act, 1919, the British had started allowing greater participation of Indians in the government.


Two years later, revolutionaries Bhagat Singh and Batukeshwar Dutt hurled bombs in the Assembly chamber from the public gallery after the House had passed the controversial Trade Disputes Bill.


"At this stage, two bombs were thrown from the Visitor's Gallery, and burst among the benches occupied by the official members, causing injury to certain members. Confusion prevailed and Mr President retired. After a few minutes, Mr President resumed the Chair," according to the official report of the proceedings of the Legislative Assembly of April 8, 1929.


Vithalbhai Patel was the then president of the legislative assembly, a post which came to be known as the Speaker as parliamentary democracy evolved in the country.


On the eve of Independence, the Constituent Assembly met at 11:00 p.m. with president Rajendra Prasad in the Chair. Sucheta Kriplani, a member from Uttar Pradesh, sang the first verse of Vande Mataram to mark the opening of the special session.


Prime minister Nehru delivered his famous "tryst with destiny" speech which was followed by a pledge by members of the Constituent Assembly dedicating themselves to the service of the nation.


Speaker G V Mavlankar announced the death of Gandhi at a sitting of the Lok Sabha on February 2, 1948.


"We are meeting today under the shadow of a double calamity, the sad demise of the tallest man of our age who has led us from slavery to independence and the reappearance of the cult of political violence in our country," Mavlankar said.


"A glory has departed and the sun that warmed and brightened our lives has set and we shiver in the cold and dark," Nehru said.


It was from the same House that prime minister Lal Bahadur Shastri made an appeal to the country to skip one meal every week as India struggled with food shortages and fought a war against Pakistan in 1965.


When the Lok Sabha met after the imposition of Emergency in 1975, the House witnessed protests from several members against the government move to suspend private members' rights to raise issues in the House.


Deputy home minister F H Mohsin placed the Proclamation of Emergency made by the President when the Lok Sabha met on July 21, 1975.


Lok Sabha members Somnath Chatterjee, Indrajit Gupta, Jagannathrao Joshi, H N Mukherjee, P K Deo protested the suspension of their rights.


"It may be the swansong for democracy but I have to say and I say with all the emphasis at my command that when there is no specific rule to give blanket power for suspension of this nature, it cannot be admitted," Deo, a member of Swatantra Party from Kalahandi, said.


With the advent of the coalition era in 1989, the Parliament witnessed frequent change in governments till 1998, when BJP formed a coalition government under prime minister Vajpayee.


Within a year, the Vajpayee government fell after losing the vote of confidence in the Lok Sabha by a single vote on April 17, 1999, only to be re-elected in the subsequent general elections.


In 1974, the then prime minister Indira Gandhi made a detailed statement in Parliament on July 22, apprising the House of the "peaceful nuclear experiment" at Pokhran and reaction of other countries to it.


Almost 24 years later in 1998, the then prime minister Vajpayee declared India as a nuclear weapons state after scientists carried out five underground nuclear tests on May 11 and May 13 that year.


"India is now a nuclear weapon state. This is a reality that cannot be denied, It is not a conferment that we seek; nor is it a status for others to grant. It is an endowment to the nation by our scientists and engineers. It is India's due, the right of one-sixth of humankind," Vajpayee said.


He also announced a no first use policy, seeking to assure the world that was caught unawares about the tests.


In 2008, the then prime minister Manmohan Singh launched a forceful defence of his coalition government against the no confidence motion moved by the Left parties which had withdrawn support following differences over the nuclear deal with the US.


संसद भवन भारत की गाथा का रहा है गवाह

 संसद भवन भारत की गाथा का रहा है गवाह-

             स्व-शासन की ओर पहले कदम से लेकर आजादी की सुबह तक और फिर देश के परमाणु शक्ति के रूप में उभरने तथा उससे आगे तक, मौजूदा संसद भवन की इमारत 1927 में अपने वजूद में आने के बाद से भारत की गाथा की गवाह रही है।


संसद के परिसर ने संविधान के निर्माण पर जीवंत बहस, महात्मा गांधी की मृत्यु की घोषणा के बाद मार्मिक दृश्यों और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा बांग्लादेश में पश्चिमी पाकिस्तान की सेना के बिना शर्त आत्मसमर्पण की घोषणा के बाद खुशी के पलों को महसूस किया।


पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के भाषण, लाल बहादुर शास्त्री का शांत लेकिन दृढ़ संकल्प, इंदिरा गांधी की वाक्पटुता, अटल बिहारी वाजपेयी की काव्य प्रतिभा और नरेंद्र मोदी के ओजस्वी भाषणों का भी संसद भवन गवाह रहा है।


कनॉट के ड्यूक प्रिंस आर्थर द्वारा 1921 में औपनिवेशिक भवन की आधारशिला रखी गई और इसका उद्घाटन 18 जनवरी, 1927 को किया गया। संसद का हाल में समाप्त हुआ मॉनसून सत्र शायद पुराने भवन में आखिरी सत्र हो सकता है क्योंकि एक नया त्रिकोणीय भवन तेज रफ्तार से तैयार हो रहा है जिसका नवंबर में उद्घाटन हो सकता है।


वायसराय लॉर्ड इरविन ने 24 जनवरी, 1927 को तीसरी लेजिसलेटिव एसेंबली के पहले सत्र को संबोधित करते हुए कहा था, ‘‘आज आप दिल्ली में अपने नए और स्थायी सदन में पहली बार मिल रहे हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘इस कक्ष में, एसेंबली को उसकी गरिमा और महत्व के योग्य एक व्यवस्था प्रदान की गई है और मैं इसके डिजाइनर के लिए केवल प्रशंसा ही नहीं बल्कि शुभकामनाओं को व्यक्त करता हूं जहां भारत के लोक मामलों का संचालन किया जाएगा, जो उनकी अवधारणा के सामंजस्य को दर्शा सकता है।’’


पंडित मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, पंडित मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय, सी एस रंगा अय्यर, माधव श्रीहरि अणे, विट्ठलभाई पटेल सहित अन्य तीसरी एसेंबली के सदस्य थे।


भारत सरकार अधिनियम, 1919 के जरिए अंग्रेजों ने सरकार में भारतीयों की अधिक से अधिक भागीदारी की अनुमति देना शुरू कर दिया था। दो साल बाद, क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सदन द्वारा विवादास्पद व्यापार विवाद विधेयक पारित किए जाने के बाद दर्शक दीर्घा से एसेंबली कक्ष में बम फेंके।


आठ अप्रैल, 1929 की एसेंबली की कार्यवाही की आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार इस दौरान आगंतुक दीर्घा से दो बम फेंके गए और आधिकारिक सदस्यों वाली बेंच के बीच वे फट गए, जिससे कुछ सदस्य घायल हो गए। भ्रम की स्थिति बनी रही और अध्यक्ष ने विराम की घोषणा कर दी। कुछ मिनटों के बाद अध्यक्ष फिर से आसन पर बैठे। उस वक्त विट्ठलभाई पटेल एसेंबली के अध्यक्ष थे, एक ऐसा पद जिसे देश में संसदीय लोकतंत्र के रूप में ‘स्पीकर’ के रूप में जाना जाने लगा।


स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा की बैठक पूर्वाह्न 11:00 बजे हुई। उत्तर प्रदेश से एक सदस्य सुचेता कृपलानी ने विशेष सत्र के उद्घाटन के अवसर पर वंदे मातरम का पहला छंद गाया।


प्रधानमंत्री नेहरू ने अपना प्रसिद्ध ‘‘नियति से साक्षात्कार’’ भाषण दिया, जिसके बाद संविधान सभा के सदस्यों ने राष्ट्र की सेवा के लिए खुद को समर्पित करने का संकल्प लिया। अध्यक्ष जी वी मावलंकर ने 2 फरवरी, 1948 को लोकसभा की एक बैठक में गांधी की मृत्यु की घोषणा की। मावलंकर ने कहा, ‘‘हम आज दोहरी आपदा के साये में मिल रहे हैं, जब हमारे समय की सबसे बड़ी शख्सियत का दुखद निधन हो गया जो हमें गुलामी से आजादी की ओर ले गए तथा हमारे देश में राजनीतिक हिंसा के पंथ की फिर से उपस्थिति देखने को मिली है।’’


नेहरू ने कहा, ‘‘कीर्ति चली गई और हमारे जीवन में गर्माहट और रोशनी लाने वाला सूरज अस्त हो गया है तथा हम ठंड और अंधेरे में कांप रहे हैं।’’


उसी सदन में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश से हर हफ्ते एक समय का खाना छोड़ने की अपील की क्योंकि भारत खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था और 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध लड़ा था।


जब 1975 में आपातकाल लागू होने के बाद लोकसभा की बैठक हुई, तो सदन में मुद्दों को उठाने के लिए निजी सदस्यों के अधिकारों को निलंबित करने के सरकार के कदम के खिलाफ सदन ने कई सदस्यों के विरोध को देखा। उप गृह मंत्री एफ एच मोहसिन ने 21 जुलाई, 1975 को लोकसभा की बैठक के दौरान राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित आपातकाल की घोषणा को रखा। लोकसभा सदस्यों सोमनाथ चटर्जी, इंद्रजीत गुप्ता, जगन्नाथराव जोशी, एच एन मुखर्जी, पी के देव ने अपने अधिकारों के निलंबन का विरोध किया।


कालाहांडी से स्वतंत्र पार्टी के सदस्य देव ने कहा, ‘‘यह लोकतंत्र के लिए अंतिम शोक गीत हो सकता है, लेकिन मुझे कहना है और मैं पुरजोर तरीके से कहता हूं कि जब शक्तियों के इस प्रकृति के निलंबन के लिए कोई विशिष्ट नियम नहीं है, तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।’’


वर्ष 1989 में गठबंधन युग के आगमन के साथ, संसद ने 1998 तक सरकारों में लगातार बदलाव देखा, जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने प्रधानमंत्री वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनाई। एक साल के भीतर वाजपेयी नीत सरकार 17 अप्रैल, 1999 को लोकसभा में एक वोट से विश्वास मत हारने के बाद गिर गई। बाद के आम चुनावों में फिर से यह सरकार निर्वाचित हुई।


वर्ष 1974 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 22 जुलाई को संसद में एक विस्तृत बयान दिया, जिसमें पोखरण में ‘‘शांतिपूर्ण परमाणु प्रयोग’’ और अन्य देशों की प्रतिक्रिया के बारे में सदन को अवगत कराया। लगभग 24 साल बाद 1998 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उस वर्ष 11 मई और 13 मई को वैज्ञानिकों द्वारा पांच भूमिगत परमाणु परीक्षण किए जाने के बाद भारत को परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र घोषित किया।


वाजपेयी ने कहा, ‘‘भारत अब परमाणु हथियार संपन्न देश है। यह एक ऐसी वास्तविकता है जिसे नकारा नहीं जा सकता, यह कोई सम्मान नहीं है जिसे हम चाहते हैं, न ही यह दूसरों को देने का दर्जा है। यह हमारे वैज्ञानिकों और इंजीनियरों द्वारा राष्ट्र के लिए एक दान है। यह भारत का हक है, मानव जाति के छठे हिस्से का अधिकार है।’’


उन्होंने परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल न करने की नीति की भी घोषणा कर परीक्षणों से अनजान दुनिया को आश्वस्त किया। 2008 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वाम दलों द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ अपनी गठबंधन सरकार का जोरदार बचाव किया, जिसने अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर मतभेदों के बाद समर्थन वापस ले लिया था।

Sunday, 31 July 2022

त्रिपुरा महल

 ●संग्रहालय में तब्दील किया जाएगा त्रिपुरा महल●

      त्रिपुरा के एक तत्कालीन महाराजा द्वारा निर्मित एवं एक सदी पुराने पुष्पबंता पैलेस को राष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय एवं सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है।


राज्य की राजधानी में एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित इस महल का निर्माण 1917 में महाराजा बीरेंद्र किशोर माणिक्य द्वारा किया गया था। वह खुद एक चित्रकार थे और इस महल को एक स्टूडियो के रूप में इस्तेमाल करते थे।


नोबेल पुरस्कार से सम्मानित रवींद्रनाथ टैगोर का शाही परिवार से घनिष्ठ संबंध था। उन्होंने सात बार त्रिपुरा का दौरा किया था। वर्ष 1926 में राज्य के अपने अंतिम दौरे के दौरान, टैगोर पुष्पबंता पैलेस में रुके थे।


विशेषज्ञों ने कहा कि टैगोर का 80वां जन्मदिन यहां महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य द्वारा मई 1941 में एक कार्यक्रम के दौरान मनाया गया था।


टैगोर के पुष्पबंता पैलेस आगमन से संबंधित दस्तावेज और उनके काम के अंश प्रस्तावित संग्रहालय में प्रदर्शित किए जाएंगे।


वर्ष 1949 में रियासत के भारतीय संघ में विलय होने के बाद, 4.31 एकड़ में फैले महल को मुख्य आयुक्त के बंगले और फिर राजभवन में तब्दील कर दिया गया था। यहां 2018 तक राजभवन रहा, जिसे बाद में एक नये भवन में स्थानांतरित कर दिया गया।


राज्य के पर्यटन मंत्री प्रणजीत सिन्हा रॉय ने बताया कि महल को महाराजा बीरेंद्र किशोर माणिक्य संग्रहालय और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए 40.13 करोड़ रुपये मंजूर किए गए हैं।


उन्होंने कहा कि यह सभी पूर्वोत्तर राज्यों की समृद्ध विरासत, दक्षिण-पूर्व एशियाई ललित कला और समकालीन फोटोग्राफी के साथ-साथ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अभिलेखागार को प्रदर्शित करेगा।

Saturday, 30 July 2022

लैंडफिल : दिल्ली के सीने पर बड़ा बोझ-

 

        दिल्ली में लैंडफिल के आसपास रहने वाले लोगों के लिए ‘खुली हवा में सांस लेने’ की बात मजाक सी लगती है। इनमें से कई लोग दमा सहित अन्य गंभीर श्वास रोगों से जूझ रहे हैं। कूड़े के पहाड़ों के नजदीक रह रहे लोगों में एनीमिया भी एक आम बीमारी है।


स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि ‘डंपिंग यार्ड’ (कूड़ा जमा करने की जगह) के आसपास रह रही गर्भवती महिलाओं के गर्भ में पल रहे शिशु के जन्मजात विकृति का शिकार होने का खतरा रहता है। ऐसी महिलाओं को समय पूर्व प्रसव का भी सामना करना पड़ सकता है।


विशेषज्ञों के मुताबिक, ऐसी महिलाओं के बच्चों में फेफड़ों का संक्रमण होने का खतरा भी बहुत अधिक मिला है, क्योंकि जीवन के शुरुआती दौर से ही वे जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर होते हैं।


भलस्वा लैंडफिल के पास कबाड़ का कारोबार करने वाली 45 वर्षीय शायरा बानो कहती हैं कि महज पेट पालने की मजबूरी के चलते वह पिछले छह साल से अधिक समय से अपनी जिंदगी को खतरे में डाल रही हैं।


शायरा जब लैंडफिल के पास रहने पहुंची थीं, तब एक साल के भीतर उन्हें सांस की गंभीर बीमारी हो गई और उनके बच्चे अब त्वचा की एलर्जी के शिकार हैं।


शायरा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘मैं काफी लंबे समय से सांस की बीमारी से पीड़ित हूं। चूंकि, मैं कबाड़ का काम करती हूं, इसलिए मुझे अपनी आजीविका के लिए इस इलाके के नजदीक ही रहना पड़ रहा है। हम जानते हैं कि हम अपने स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहे हैं, लेकिन कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मेरे चार बच्चे हैं, जिनमें से दो को त्वचा एलर्जी हो गई है।’’


वहीं, गाजीपुर लैंडफिल के बगल में रह रहीं 32 वर्षीय तस्नीम अपने बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं, क्योंकि वे इलाके में फैली जहरीली गैस और बदबू की वजह से अक्सर बीमार रहते हैं।


तस्नीम ने ‘पीटीआई-भाषा’ से बातचीत करते हुए कहा, ‘‘मेरे बच्चे सांस की बीमारी का सामना कर रहे हैं। उनकी आंखों में खुजली होती है और वे त्वचा एलर्जी से भी जूझ रहे हैं। डंपिंग यार्ड में हर साल गर्मियों में आग लग जाती है और उस समय यहां रह रहे बच्चों में ये समस्याएं और आम हो जाती हैं।’’


लैंडफिल के आसपास के इलाकों में श्वास रोगों के खतरों पर बात करते हुए गुरुग्राम स्थित मेदांता अस्पताल के वरिष्ठ सर्जन और लंग केयर फाउंडेशन के संस्थापक डॉ. अरविंद कुमार ने कहा कि उन इलाकों में रहने वाले लोगों की कम से कम एक दशक की जिंदगी लगातार जहरीली गैस में सांस लेने की वजह से कम हो जाती है।


कुमार ने बताया कि गर्मियों में लैंडफिल में लगने वाली आग से निकला धुआं सिगरेट और चूल्हे के धुएं से कहीं घातक होता है।


उन्होंने कहा, ‘‘इलाके में रहने वाले बुजुर्गों में दमा का गंभीर दौरा पड़ने, एनीमिया और कई अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम रहता है। उन इलाकों के लोग जहरीली हवा में सांस लेने की वजह से जिंदगी का कम से कम एक दशक गंवा देते हैं।’’


कुमार ने बताया, ‘‘इलाके में रहने वाली गर्भवती महिलाएं जहरीली हवा में सांस लेती हैं और उनके खून व गर्भनाल के रास्ते हवा में मौजूद प्रदूषक उनके गर्भ में पल रहे भ्रूण तक पहुंच जाते हैं। इससे जन्मजात विकृत का खतरा होता है। समय पूर्व प्रसव की भी आशंका रहती है।’’


दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति के आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली में रोजाना 11 हजार टन ठोस कचरा निकलता है, जिसमें से केवल पांच हजार टन कचरे का प्रसंस्करण किया जाता है। बाकी का छह हजार टन कचरा यानी सालाना 216 लाख टन कचरा लैंडफिल में जमा होता है।